घर की सत्ता घर की औरत को दी जाए
घर की सत्ता घर की औरत को दी जाए या फिर घर के मर्द को दी जाय
मर्द के हाथ में सत्ता हो तो मातापिता, भाई-बहन निभ जाते हैं औरत के हाथ में सत्ता हो तो सिर्फ़ पैसे से परिवार आगे बढ़ता रहता है यह सवाल हालाँकि पिछले तीस-चालीस बरसों से चल रहा है, कि घर में ताकत औरत की ज़्यादा हो या मर्द की हो, लेकिन अब यह सवाल और भी ज़रूरी हो गया है, जिस मर्द के माता-पिता जिंदा हैं उसकी पत्नी की धौंस-घमंड मर्द पर हावी रहती है। मर्द औरत पर दो चार तरह से अपनी धौंस-घमंड जमा सकता है। एक तो वो पत्नी को पीटता है, तो पत्नी डर जाती है कि पतितो पीट रहा है, पीटने से बदन दर्द हो रहा है इसलिए पति जो कह रहा है वह सुन लेती हूँ, पति के मातापिता की सेवा कर लेती हूँ, ननद भी आये तो सेवा कर लेती हूँ। इसी तरह से अभी तक देश के लगभग आधे परिवार चला करते थे, जो भी ताकत थी वो सास और ससुर के हाथ में हुआ करती थी, सास-ससुर के नाम पर घर हुआ करता था तो बेटा भी माता-पिता को निभा लिया करता था, दूसरे भाई भी माता-पिता को निभा लिया करते थे, जो ससुर कहते थे उसी बात को सभी परिवार के सदस्य माना करते थे, सारी की सारी बहुएँ माना करती थीं। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि देश में लगभग सभी घर इसी तरह से चला करते थे। उधर सासासारी बहुओं पर हुक्म चलाया करती थी, आधे अधिकार सास के चलते थे तो आधे बड़ी बहू की चला करती थी, सास कहे जब सुबह जल्दी उठा जाना पड़ता था, और सभी के सोने का समय भी ठीक एक ही तरह का रहा करता था। घर से कहीं पर भी जाना होता था तो बहू को सास और ससुर की इजाज़त लेकर ही जाना पड़ता था। तब सबसे बड़ी बात यह थी कि घर से ब्याह कर जा चुकी बेटी भी बहुत बार मायके आया-जाया करती थी। दोनों परिवारों को निभाया करती थी। और पैसे आदि की भी मदद मायके से ले लिया करती थी। इधर सास ससुर चाहते थे कि उनकी हुकूमत घर पर चले तो उन्हें घर स्वर्ग की तरह लगा करता था, सारे लोग उनकी बात सुना करते थे। क्योंकि जब भी कोई इंसान यानी माता-पिता पचास साल से पार के हो जाते हैं तो वे ब्याही जा चुकी बेटी को अपने घर में आना बहुत पसंद किया करते हैं। और तब माता पिता की बात बेटे और बहुएँ भी मान लेती थी और बहुएँ भी मान लिया करती थीं कि घर बेटियाँ मायके आये तो वे ननदों की सेवा करेंगीं। लेकिन जैसे ही पढ़ी-लिखी बहू घर आयी तो वह भी
अपने अधिकारों की बात करने लग गयी, तो वहाँ से परिवार का रूप ही बदलता चला गया, बहू के मायके का दखल भी बढ़ता चला गया तो ससुराल में धौंस उसकी और भी बढ़ती चली गयी। इधर दूसरी ओर छोटे भाई बड़े भाईयों की ताकत से परेशान होते चले जा रहे थे, हरकोई अपनी धोस चलाने को तैयार हो गया तो सारा का सारा परिवार बिखरता चला गया। पुराने ज़माने में क्या होता था कि बहुएँ मर्द के माता-पिता को निभा लिया करती थीं। और रात में पति को सेक्स के लिए खुश भी किया करती थी, सारे जगह पर इसी तरह का माहौल हुआ करता था। लेकिन बाद में जब क़ानून ने औरत को ताक़त दे दी तो वह पति से पिटने को तैयार नहीं है और पिटती है तो पुलिस में शिकायत कर देती है, १९८०-१९९० में गृहिणी का रूप बदल गया, उसने साफ़-साफ़ पति से कह दिया कि या तो वह उसके माता-पिता की सेवा करेगी, या फिर वह उसे सेक्स से खुश करेगी। क्योंकि तब रात में पति अपनी पत्नी को हाथ लगाता तो पत्नी उसे धकेल दिया करती थी। वह कहती थी ये करा लो या सेवा करा लो। यहाँ पर भी क्या हुआ कि मर्द ने माता-पिता की सेवा को ज़रूरी समझा और अपने सेक्स का बलिदान कर दिया, या नहीं तो यहाँ-वहाँ जाकर मुँह मारने लग गया था। या बीवी मायके चली जाती थी तो नौकरानी से काम चला लिया करता था। १९८०-९० के दशक में तीन चार बेटे जो हुआ करते थे, उसमें से जो छोटा बेटा होता था, वह संयुक्त परिवार से बाहर जाता चला गया, तब भी पूरे परिवार का व्यापार तो एक ही था, लेकिन छोटा बेटा घर से अलग होकर चला गया, फिर और भी परिवर्तन यह आया कि सरकारी नौकरियाँ शुरू हो गयीं और कुछ बेटे सरकारी नौकरी की ओर भी चले गये, सरकारी नौकरी में वे गाँव से शहरों की ओर भी चले गये, और हुआ यह कि हर घर का एक बेटा नौकरी के कारण माता-पिता से हमेशा के लिए अलग हो गया। क्योंकि उसे पत्नी से शारीरिक प्रेम बहुत अच्छा लगता था, बड़े मज़े ले लेकर ढ़िनचाक ढ़िनचाक करता था। वह बडे भाई या मंझले भाई के पास माता पिता को छोड़ दिया करता था। फिर क्या हुआ कि जो अकेले पति-पत्नी भी रहा करते थे, वहाँ भी पत्नी ने नयी चाल चली, घर लेकर दो, जेवर लाकर दो, मायके को लगातार भेजते रही, जिस दिन पत्नी मायके को जाती थी, तो मायके से लौटकर आती तो पति से झूम-झूमकर प्यार किया करती थी, छोटे बेटे को भी बहुत मज़ा आता था कि ससुराल जाओ और पत्नी का पूरा का पूरा मज़ा लूटो। इस तरह औरत की सत्ता और भी बढ़ती ही चली जा रही है, वह जिस स्कूल में कहती है बच्चे उसी तरह के स्कूल में पढ़ा करते थे, भले ही उसकी फीस बहुत ज़्यादा क्यों न हो। फिर मर्द के सालों ने प्रवेश किया तो पति का रुतबा घर में और भी कम होता चला गया। घर के बड़े बड़े फैसले साले साहब ही लेने लग गये, सारी खुदाईएकतरफ जोरू का भाईएकतरफ वाला हिसाब हो गया था। अंत में जाकर अब इस समय यह चल रहा है कि घर में औरत की धौंस ही पूरी तरह से चल रही है, पति केवल पत्नी की हाँ में हाँ मिलाया करता है, पिता के सारे बच्चे भी माता का ही साथ देने लग गये हैं। माता और बच्चे भौतिक सुख का मज़ा लेने में भरोसा करते हैं, वह घर के बड़े मर्द को कोल्हू के बैल की तरह पैसा कमाकर लाने को कहते हैं और पैसा जो भी आता है वह सारा परिवार मिलकर खाया करता है। लेकिन घर की सत्ता औरत के हाथ में देने से सारा समाज टूटकर बिखर गया है, अब सारे के सारे परिवार औरत की सत्ता से घबरा गये हैं और सारे के सारे ख़ानदान औरत की सत्ता के कारण ही टूटकर बिखर गये हैं। मर्द की सत्ता जब चल रही थी तो माता पिता को फैसला करने का हक़ हुआ करता था। और बूढ़े लोगों के हाथ में सत्ता दी जाती है तो वे बहुत खुश भी होते हैं कि हमारे जीवन के अंतिम दिनों में हमें घर के फैसले करने का सौभाग्य मिल रहा है। अब क्या हो गया है कि बूढा अगर अपनी पेंशन से घर में कुछ सहयोग करता है तो उसकी बात सुनी जाती है पूरी तरह से नहीं तो कुछ-कुछ बातें तो मानी जाती है। लेकिन उनके पास पैसा न हो, घर उनके नाम पर न हो तो औरत की सत्ता के कारण एक कोने में पड़े रहना पड़ जाता है और भोजन दे दिये तो खाकर चुपचाप सो जाना पड़ता है, लेकिन इस तरह के व्यवहार से माता-पिता खुश नहीं रह पाते हैं। माता-पिता से हर काम पूछकर किया जाता है तो वे सारे शहर में गर्व से कहते हैं कि बहू बेटा मुझसे है वह दिन पूरी तरह से ख़त्म हो चुके हैं। औरत की सत्ता के कारण ददिहाल से संबंध पूरी तरह से खटास से भरपूर हो जाते हैं, कहीं ददिहाल वाले मिलते भी हैं तो बहुत बेदिली से मिला करते हैं क्योंकि पुरुष सत्ता समाप्त हो जाती है, माता-पिता से मिलने ददिहाल के लोग आते भी हैं तो औरत की सत्ता के कारण उनको वह सम्मान नहीं मिल पाता है जो
मिलना चाहिए। बस चाय पिला दी जाती है, और घर की बहू जिसके हाथ में सत्ता होती है वह चाय का कप रखकर अंदर ही बैठ जाया करती है। यह सब मातापिता को पसंद तो नहीं आता है लेकिन वे सब यह सब मन मानकर सहते चले जाते हैं। लेकिन हाँ औरत की सत्ता होती है तो बच्चों के मामा का परिवार पूरी आज़ादी से आया-जाया करता है, उन्हें चाय पर नहीं बुलाया जाता बल्कि बाक़ायदा बहुत ही बढ़िया भोजन करके टिफिन बांध कर भी दिया जाता है, औरत की सत्ता में सबसे बुरा हाल तो ननद का हो जाता है, सालों साल गुजर जाते हैं घर की बेटियों का मायके का मुँह देखकर या नहीं तो औरत की सत्ता में सभी के मुँह फुले हुए ही रहते हैं। औरत की सत्ता होती है तो उसमें आपको एक तरह का लालच दिखाई देता है, मर्द की सत्ता होती है तो उसमें उसका परिवार के मेल मिलाप की ओर ध्यान ज़्यादा होता है, मर्द बलिदानी इसलिए होता है कि यह उसका घर होता है, औरत बलिदानी इसलिए नहीं होती क्योंकि वह ससुराल से आयी होती है, एक अलग ही तरह के घर से आयी हुई होती है। इंसान की भलाई के हिसाब से देखा जाये तो मर्द की सत्ता समाज के लिए बहुत ज़रूरी होती है, क्योंकि घर परिवार की भलाई में दान की महिमा किसी न किसी के भले के लिए होती है, जबकि पत्नी का स्वभाव सारा पैसा अपने पास ही दबाकर रखने की आदत होती है। और पैसा तो अंतहीन होता है, औरत हज़ार रुपये को भी दबाकर रखती है और जब वह करोड़पति हो जाती है तब भी दबाकर ही रखना पसंद करती है। किसी को फूटी कौड़ी नहीं देती है। या फिर अपने ही मायके पर पैसा लुटाने को तैयार होती है, ससुराल के घर पर एक फूटी कौड़ी देने को तैयार नहीं होती है। औरत की सत्ता तब तक ठीक रहती है जब तक कि उसका पति और परिवार पनप नहीं जाता है, लेकिन पनपने के बाद उसे ससुराल का भी ध्यान रखना चाहिए। अब तो औरत की सत्ता की वजह से कई सारे ख़ानदान का सत्यानाश भी हो चुका है। हमारा परिवार पनप गया तो छोटे भाई की फीस भरनी चाहिए, देवर को तकलीफ़ हो तो इलाज का पैसा देना चाहिए। उसके बजाय लोग यहाँ वहाँ पैकेज के टूर पर लाखों रुपया लगाते हैं, अब इंसान की कोई इज्जत नहीं रही, अब औरत की सत्ता में सबकुछ सत्यानाश हो चुका है।
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