रिश्तेदारी को ठीक से निभाना हो तो पैसा नहीं उसका व्यवहार देखना चाहिए

महानगरों में जीवन से लड़ता आदमी

रिश्तेदारी को ठीक से निभाना हो तो पैसा नहीं उसका व्यवहार देखना चाहिए और सामने वाले से किसी तरह की उम्मीद नहीं करनी चाहिए, मगर सच कहा जाय तो ऐसी रिश्तेदारी तो बस दिखावे की रिश्तेदारी हो जाती है, सच में कहॉं गयी वो रिश्तेदारी जिसमें सच्चाई और समर्पण था, और रिश्तेदारों पर पैसा लुटाया जाता था

रिश्तेदारी का आजकल पहला उसूल हो गया है कि मैं अपना पैसा किसी को नहीं दूँगा| चाहे कोई भी रिश्तेदार मरता है मर जाय मगर मैं अपना पैसा किसी को नहीं दूँगा| रिश्तेदारी में अगर कोई भी इस तरह से सोचता है तो वह रिश्तेदारी खोखली होती चली जा रही है| पहले क्या था कि देवर, भाभी को साड़ी लाकर देता था| मामा, भानजे को कपड़े लेकर देता था| भाई अपने भाई को त्योहारों पर कपड़े दिया करता था| अब यह चलन पूरी तरह से बंद हो गया है| यह चलन रिश्तेदारों में दोबारा शुरू होना चाहिए| एक रिश्तेदार दूसरे को कपड़े देता है तो रिश्ते में नज़दीकियॉं बढ़ जाती हैं| ऐसा होने से रिश्तेदार एक-दूसरे से मोहब्बत से बात किया करते हैं| नहीं तो किसी भी रिश्तेदार ने दूसरे किसी रिश्तेदार को कपड़े नहीं दिये तो दोनों एक-दूसरे के कपड़े देखकर पहले तो उन कपड़ों का रेट पूछ लेते हैं| फिर किसी का रेट कम रहा तो वह कम रेट वाले को हिक़ारत की नज़र से देखा करते हैं| और जिसका रेट ज़्यादा होता है वह उस दिन बहुत ही घमंड में रहता है|


रिश्तेदारों में तो आजकल एक-दूसरे के कपड़े जलन से देखने का इतना चलन बढ़ गया है कि बड़े से बड़ी लड़ाई कपड़ों को लेकर ही हो रही है| एक घर की बेटी अपने मायके को बहुत जाता करती थी, क्योंकि अपनी माता से बहुत प्यार करती थी|  बेटी जो है चार या पॉंच हज़ार की साड़ी अक्सर लेती रहती थी| और बहू जो है केवल एक से लेकर दो हज़ार की ही साड़ी ले रही थी| क्योंकि बहू को पैसा बचा-बचाकर चलने की आदत बहुत थी| एक दिन क्या हुआ कि बहू अपने मायके गयी| तीन दिन के बाद लौटी तो मायके से वह एक बहुत ही शानदार साड़ी लेकर आयी| उस साड़ी पर इतना ज़्यादा बेहतरीन महँगे का काम था जिसकी हद नहीं थी| यह देखकर घर की बेटी को बहुत ही जलन होने लग गयी| सारा झगड़ा औरतों की जलन से ही शुरू हो जाता है| बेटी ने घर की बहू से उस साड़ी का रेट पूछा| तो बहू ने कहा कि मेरी माता ने यह साड़ी लेकर दी है और रेट है छह हज़ार रुपया| बस, इतना कहना था कि बेटी को बेहद जलन होनी शुरू हो गयी| क्योंकि बेटी ने आजतक इतनी महंगी साड़ी नहीं ख़रीदी थी| उस रात बेटी सोई नहीं, रात भर करवटें बदलती जा रही थी|
अब बेटी के लिए यह ऐसी समस्या हो गयी कि वह किसी से कह भी नहीं सकती थी| क्योंकि कहती तो लोग उससे यही कहते थे कि तुम भी तो चार से पॉंच हज़ार की साड़ी पहनती ही हो| उसने इस छह हज़ार की साड़ी लेने का बहुत बड़ा बदला लेने की सोची| उसने अपनी माता से जाकर कहा कि एक शादी में मुझे जाना है मुझे बहू की वह छह हज़ार की साड़ी एक दिन के लिए दे दो| अब बेटी की माता ने बहू से कहा कि एक दिन के लिए वह साड़ी दे दे| उन्होंने बहू से कहा कि एक ही बार तो मॉंग रही है, फिर सारा जीवन तो यह साड़ी तुम्हारे पास ही रहेगी| मेरी बेटी उस साड़ी से मिलता-जुलता ब्लाउज़ तो बाहर से सिला लेगी|
अब इधर बहू को बहुत ही तकलीफ़ हो गयी| उसने कहा कि मैं साड़ी नहीं दूँगी| क्योंकि मैंने ज़िंदगी में पहली बार इतनी महँगी साड़ी माता से ली है| और एक बार भी पहनी नहीं है, मेरी ननद ही पहली बार पहनेगी| और दो दिन में ही देने को कह रही है| मैं यह साड़ी नहीं दूँगी, नहीं दूँगी, नहीं दूँगी| उसने उसी रात को अपने पति से कह दिया कि मैं यह साड़ी नहीं दूँगी| पति ने कह दिया तुम मेरी बहन से कह देना कि साड़ी पीको फ़ॉल के लिए दी है, तीन दिन के बाद ही आयेगी| जबकि मेरी बहन को दो दिन के बाद ही पहनना है| जब यह सारी बात बेटी को बतायी गयी तो बेटी को बहुत ग़ुस्सा आया, बेटी के लिए वह घमंड की समस्या हो गयी कि मैंने जब तीन दिन पहले ही कह दिया था कि साड़ी मुझे पहननी है| तो बहू ने तभी वह साड़ी पीको के लिए क्यों दी| बेटी का बीपी-शुगर बढ़ गया| लेकिन तभी बेटी ने एक चाल चली, उसने पूछ लिया कि तीन दिन के बाद मैं फिर वह साड़ी लेने के लिए आऊँगी| अब बहू को और बेचैनी हो गयी|
अब बहू के लिए चाल चलना बहुत ही मुश्किल होता जा रहा था| उसे बहुत ही ग़ुस्सा आ रहा था, कि अब मैं क्या करूँ| उससे यह देखा नहीं जा रहा था कि पहली बार साड़ी ननद पहने| उसने क्या किया कि उस साड़ी को थोड़ा-सा जला दिया| वह साड़ी जलाते समय बहुत रो रही थी| लेकिन ख़ुश थी कि चलो अब तो बेटी नहीं पहनेगी| उसने पल्लू के पास साड़ी जला दी| दो दिन के बाद बेटी आयी साड़ी लेने के लिए| और बहू से सबकुछ सुनने के बाद कि वह साड़ी पल्लू के पास ही जल गयी है, वह बहुत ही अफ़सोस में आ गयी थी| लेकिन उसने कहा कि एक बार मुझे दो तो सही, देखती हूँ कितनी ख़राब हुई है| उसने देखा| उसने वहॉं भी एक चाल चली| जहॉं साड़ी जली हुई थी| उसपर शॉल डाल लिया| जिससे जला हुआ हिस्सा छिप गया| उसने कहा कि जहॉं जला हुआ है वहॉं पर शॉल डाल लेती हूँ| एक हाथ की तरफ़ छिप जायेगा| फिर तभी तपाक से बहू ने पूछा कि कहीं शॉल फिसल गया तो क्या करेंगी| तो बेटी ने कहा कि असल में जो जला हुआ हिस्सा है वह थोड़ा सा खींचकर पहले ही कमर में खोंस लेती हूँ| नहीं तो एक दिन बचा हुआ है, उसपर थोड़ा सा काम करवा लेती हूँ| इतना कहते ही बहू के सारे होश ही उड़ गये| उसने सोचा ये बेटी तो सेर पर सवा सेर निकली| अब बहू के पास उस साड़ी को देने के अलावा कोई चारा ही नहीं रह गया था| सो, इस तरह से घर की बेटी उस साड़ी को लेने में सफ़ल हो गयी| और बेचारी बहू बुरी तरह से हार गयी| अब इज़्ज़त के लिए घर के बेटे और घर की माता को भी बुरा लगा कि बहू हार गयी, और बेटी जीत गयी, लेकिन बेटी का घर आना लगा रहता है, इसलिए वे बेटी को नाराज़ नहीं करना चाहते थे|
ननद-बहू का झगड़ा इसी तरह का होता है, ननद अगर बहू से उम्र में ज़्यादा होती है तो वह बहू को हमेशा दबाकर रखना चाहती है| बातें तो बहुत अच्छी-अच्छी करती हैं लेकिन वह बहू को ग़ुलाम बनाकर ही रखना चाहती है| इसीलिए कहा गया है कि घर की बहू को ननद के सामने झुककर ही रहना पड़ता है| लेकिन आधुनिक युग में एक-दूसरे को कपड़े दिखाने का इतना शौक़ हो गया है कि कपड़े दिखाकर ख़ून जलाने का नया चलन सामने आ गया है| किसी एक की साड़ी किसी से बेहतर हो गयी तो दूसरे तरह की लड़ाइयॉं भी शुरू हो जाती हैं| फिर दोनों के बच्चे भी कपड़ों का मुक़ाबला करने लग जाते हैं|
आजकल सबसे दुखद तो यह हो गया है कि ननद या भौजाई में से एक भी कोई विधवा हो जाती है तो विधवा को हल्के रंग के ही कपड़े पहनने होते हैं| वहॉं पर भी जो विधवा नहीं होती है वह विधवा को नये नये चमकीले कपड़े पहनकर जला रही है| यानी दुनिया में इंसानियत नाम की चीज़ ही ख़त्म हो गयी है और लोग एक दूसरे से राक्षसों की तरह व्यवहार कर रहे हैं| इसका यही इलाज है कि रिश्तेदार एक-दूसरे को कपड़े समय-समय पर देते रहने से दोनों के संबंध बहुत ही अच्छे चला करते हैं| कपड़े अगर ब्याही हुई बेटी को मायके बुलाकर दिये जाते हैं तो वह भी घर बहू से नहीं जला करती है| वह भी बहू का भला ही चाहती है| फिर बेटी के अलावा दामाद को भी कपड़े लाकर दिये जाने चाहिए| जिससे वह साले के कपड़े देखकर नहीं जला करता है|
इसीलिए शादी के समय रस्मों-रिवाज रखें जाते हैं कि घर के बेटे की शादी होती है तो बहन और दामाद को भी कपड़े दिये जाते हैं| साढ़ू भाइयों को भी कपड़े दिये जाते हैं| ताकि कोई किसी से जले नहीं| कपड़ों का लेन-देन रहने से दामाद भी शहर में घूम-घूम कर अपने ससुराल का प्रचार करता है कि देखो मुझे ये कपड़े ससुराल से मिले हैं| उसी तरह त्योहारों पर भी खान-पान इसीलिए भेजा जाता है कि बेटी के मायके वाले जो खा रहे हैं वही हमारी बेटी खा रही है, ये सब जलन कम करने के लिए ही किया जाता है|
मगर आजकल हर घर में माता-पिता और बेटों की नहीं चलती है और सारा कुछ घर की बहुएँ ही चला रही हैं| इसीलिए आजकल अच्छे भोजन बनाकर बेटी को नहीं दिया जा रहा है| इससे ससुराल और मायके के बीच ेंमेंं संबंध बुरी तरह से ख़राब हो रहे हैं| आजकल हरेक माता-पिता भी अपनी बेटी के ससुराल में कुछ भी भेजने से कतरा रहे हैं| जबकि माता-पिता को तो बेटी को उतना ही देना चाहिए जितना कि वे लोग खा रहे हैं| बेटी के घर पकवान भेजने से बहुत सवाब मिला करता है| जिस घर में ब्याही हुई बेटी की इज़्ज़त होती है वही परिवार समाज में नाम कमाया करते हैं| जहॉं पर बेटियों को मायके वाले दुत्कारा करते हैं वे परिवार हमेशा संकट से घिरे रहते हैं|
जिस बेटी के लिए उसके मायके वाले करते रहते हैं, उस बेटी के पास इतना सारा पैसा आ जाता है वह अपने मायके की मदद करने को भी तैयार हो जाती है| बेटी का सगा भाई संकट में आ जाता है तो उसको आशीर्वाद देती है, कई घरों में तो ऐसा हो गया है कि बहन के सगे भाई को ही उसकी पत्नी बहुत सताया करती है तो बहन की उसकी रक्षक बनकर आ जाया करती है|
हमने तो हज़ारों ऐसी बहनें देखीं हैं जो अपने पति को बिना बताये अपना सोना गिरवी रखकर अपने भाइयों को मदद करती ही रहती हैं| और ऐसा करते-करते वर्षों गुज़र जाया करते हैं| और हरेक को इस जीवन में अपनी ज़िम्मेदारी ज़रूर निभानी चाहिए| रिश्तेदारी इसी का नाम होती है कि जो परिवार चाहे वह भाई, बहन या किसी भी तरह का हो, उसके संकट के समय उसके काम ज़रूर आना चाहिए|
आजकल तो ऐसा हो गया है कि कोई किसी की मदद ही नहीं करना चाहता है| इसलिए दुनिया में सभी के लिए बहुत ही अकेलापन हो गया है| आज आप दिल से सोचकर देखिये कि आप मर गये तो दिल से कोई आपको चार लोग नहीं मिलेंगे जो आपकी अर्थी को कंधा देंगे, सारे दुश्मन ही होते हैं आपकी अर्थी को कंधा देने वाले, यानी आप मर भी गये तो उसके बाद भी आपको शांति नहीं मिलती है| इसकी वजह क्या है, इसकी वजह आप ही हैं पहले ख़ुद अपने गिरेबान में झॉंककर देखिये, कि आपसे क्या-क्या ग़लतियॉं हुई हैं| क्या आपने बहनों से ठीक से व्यवहार किया है| क्या आपने भाईयों से ठीक व्यवहार किया है, क्या आपने माता पिता से ठीक व्यवहार किया है| जवाब आपको मिल जायेगा| ये पैसे की दुनिया है और जब तक आप पैसे को रिश्तेदारों में नहीं लुटाएँगे उन्हें गिफ़्ट नहीं देंगे तो आपको लोग पराया ही समझेंगे| आपको अपने से दूर रखेंगे|
यही हो रहा है, एक दूसरे के प्रति जलन बहुत ही बढ़ गयी है| एक दूसरे का सुख एक दूसरे से नहीं देखा जा रहा है| और फिर जब जायदाद का बँटवारा होता है तो सारे लोगों की जलन उभरकर सामने आती हैं और फिर लोग एक दूसरे को जूते भी मार लेते हैं|    

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