आज भोजन से बढ़कर ख़र्च तो बच्चों की पढ़ाई में आ रहा है
महानगरों में जीवन से लड़ता आदमी - 6
आज भोजन से बढ़कर ख़र्च तो बच्चों की पढ़ाई में आ रहा है, इसलिए अपनी जान बचाने के लिए बच्चों को कम फ़ीस के सरकारी स्कूलों में पढ़ाना बेहद ज़रूरी हो गया है, वरना घर चलना बहुत ही मुश्किल होता चला जा रहा है, बचत तो बहुत दूर की बात है
आज का आम इंसान ही नहीं अमीर इंसान भी मर-मरकर जी रहा है| ग़रीब आदमी को बच्चे की हज़ार रुपय की फ़ीस देना जान पर आ रहा है तो अमीर को अपने बच्चे को डॉॅक्टरी की पढ़ाई में बच्चे पर पचास लाख रुपया देने के लिए दम फूल रहा है| पढ़ाई आज सभी का सिरदर्द बनकर रह गयी है| असल में एक पूरी की पूरी गहरी साज़िश चल रही है कि आपके दोस्त ही आपसे कहते हैं कि बच्चे को महँगे स्कूल में पढ़ाओ नहीं तो बच्चे का जीवन बर्बाद हो सकता है| रिश्तेदार भी यही कह रहे हैं और यही कर रहे हैं| जिससे सभी का जीना बुरी तरह से हराम हो गया है| आज भोजन, पेट्रोल और पढ़ाई में लगभग एक समान का ख़र्च आ रहा है| आज से तीस साल पहले तो लोग अपने बच्चों की पढ़ाई पॉंच रुपया दस रुपया बीस रुपया या बहुत हुआ सौ रुपये महीने की फ़ीस में पूरी हो जाया करती थी| तब दस हज़ार की तनख़्वाह माता पिता की नहीं होती थी, केवल तीन हज़ार या एक हज़ार या आठ सौ रुपये की पिता की तनख़्वाह होती थी, जिसमें मॉं बाप चार बच्चे, दादा, दादी चाचा,चाची भी पूरी हँसी ख़ुशी पल जाया करते थे|पहले के समय में पढ़ाई जी का जंजाल नहीं हुआ करती थी| बड़े लोग भी बच्चों की फ़ीस माफ़ करवाने की ताक में रहते थे, क्योंकि तब समय ही ऐसा था कि कोई भी फ़ीस माफ़ करवाने के लिए शर्म महसूस नहीं करता था| आजकल फ़ीस माफ़ करने की बात आती है या समाज में पैसा दान में बँट रहा हो, वह पैसा लेने की बात आती है तो लोग छी छी थू थू करने लग जाते हैं और शर्म महसूस करते हैं| पहले के ज़माने में क्या था कि ज़्यादातर लोगों की हालत एक सरीखी थी, तब करोड़पति लोग भी एक आदर्श से रहा करते थे, करोड़पति आदमी सुबह दूध लाने जाया करते थे, वह मैली धोती पर ही दूध लाने जाया करता था| आज तो अमीर लोगों को घर से पैदल निकलने में शर्म महसूस होती है, उन्हें ऐसा लगता है कि पैदल सड़क पर चलेंगे तो उनकी इज़्ज़त चली जायेगी| वे लोग उस चमन में जाते हैं जहॉं रोज़ाना का पॉंच या दस रुपये टिकट होता है| पैदल नहीं चलते से आज हम पैकेट का दूध पी रहे हैं, नक़ली दूध पीने से हमारी सेहत भी ख़राब हो रही है|
हॉं तो हम पढ़ाई की बात कर रहे थे| पहले एक रुपये फ़ीस हो जाया करती थी| आज पॉंच हज़ार रुपये एक अच्छे स्कूल में फ़ीस चल रही है| हज़ार रुपये का स्कूल तो खटारा स्कूल माना जा रहा है| इसीलिए लोग उसी स्कूल में बच्चे को डाल रहे हैं जहॉं पर फ़ीस महँगी होती है| महँगे स्कूल में क्या होता है कि जब बच्चे के मॉं-बाप बच्चों को स्कूल से लेने जाते हैं तो वे तनकर चलते हैं कि देखो हमारा बच्चा महँगे स्कूल में पढ़ रहा है| और वहॉं माता-पिता बच्चे की फ़ीस माफ़ भी नहीं कराते हैं| क़िस्तों में फ़ीस भरते हैं लेकिन माफ़ नहीं कराते हैं|
आज एक स्कूल है जहॉं साल भर की फ़ीस अट्ठारह हज़ार रुपया है, उस स्कूल में ऑटो वाले, मेस्त्री, रंग करने वालों के बच्चे पढ़ते है| यानी एक आम आदमी जिसकी बच्चों को पढ़ाने की औक़ात ही नहीं है, वह आदमी भी महीने के डेढ़ हज़ार की फ़ीस के स्कूल में बच्चों को पढ़ा रहा है| अब उस स्कूल में माता-पिता बच्चों की फ़ीस भी नहीं भर पाते हैं और रोज़ाना माता-पिता स्कूल के मैनेजमेंट की खिड़की के सामने गिड़गिड़ाते नज़र आते हैं कि आज नहीं चार दिन के बाद हम ज़रूर फ़ीस भर देंगे कृपा करके हमें चार दिन का समय और दे दीजिए| और मैनेजमेंट उन्हें बुरी तरह से डॉंटता ही चला जाता है| माता-पिता और बच्चों की रोज़ाना फ़ीस नहीं भरने से परेड हो जाया करती हैै| सो, ये लोग गिरते-पड़ते कैसे भी करके अपने बच्चों को उस तरह के स्कूल में पढ़ाया करते हैं| लेकिन वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में क़तई नहीं पढ़ाते हैं जहॉं फ़ीस केवल साल की दो हज़ार ही होती है|
अब आते हैं सरकारी स्कूलों पर सरकारी स्कूलों में बहुत ही कम फ़ीस हुआ करती है, वहॉं पर बहुत ही ग़रीब लोगों के बच्चे पढ़ने को आते हैं जैसे कि उनकी माता घरों में बर्तन मांजती है, पति दिन भर शराब पीकर कहीं सड़क पर पड़ा रहता है| या फिर ऊँची जाति के लोग यह समझते हैं कि वहॉं पर केवल नीची जाति के लोग ही पढ़ने आते हैं दुर्भाग्य से आज भी ऊँच-नीच की वजह से अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजा नहीं जाता है| इसीलिए ऊँची जाति का ग़रीब आदमी भी अपने बच्चे को बड़े से स्कूल में भेजकर किसी भी तरह मर-मरकर बच्चे की फ़ीस भरा करता है| वह दिन रात मेहनत करता है अपने बच्चे को बेहतर स्कूल में पढ़ाने के लिए| जबकि यह बहुत ग़लत विचार है कि सरकारी स्कूल में नीची जाति के ही बच्चे आते हैं और अगर आते भी हैं तो उनके साथ पढ़ाने में बुराई ही क्या है| बच्चों में अगर भेदभाव आ जाय तो उनको किसी न किसी मोड़ पर सभी का एक-दूसरे से सामना तो होना ही होता है| इसीलिए साथ-साथ पढ़ने में हमें किसी से परहेज़ नहीं करना चाहिए| क्योंकि जब हम मंदिर में सभी एक साथ पूजा के लिए जाते हैं तो स्कूल में भी एक साथ पढ़ने के लिए भेज दिया जाना चाहिए| आजकल तो कई ऊँची जाति के लोग भी होते हैं जो मजबूरी में छोटे से छोटा काम करने के लिए मजबूर हो रहे हैं| सो, अब ऊँच-नीच का फ़र्क जनता को ही मिटा देना चाहिए| अब ऊँची जाति के सभी लोग अपनी जाति को बचाने के लिए बहुत सारा पैसा ख़र्च कर रहे हैं ऐसी कोई बात नहीं| हर आदमी की अपनी मेहनत ही है जिससे वह किसी भी जाति का हो मेहनत करके ही जी रहा है|
सरकारी स्कूल की टीचरों का भी अलग ही व्यवहार होता है, वह सोचता है कि ये फ़कीरों के बच्चे जब मेरे सामने बैठे हैं तो मैं इन लोगों को क्यों बेहतर तरीक़े से पढ़ाऊँ| जबकि इन सरकारी स्कूलों के टीचरों की तनख़्वाह कम से कम पचास हज़ार होती है, जबकि प्राइवेट स्कूल के टीचरों की तनख़्वाह दस हज़ार या पच्चीस हज़ार ही होती है| सो, सरकारी टीचरों को पूरी सुविधाओं मिलती हैं लेकिन वे दिल लगाकर नहीं पढ़ाते हैं| प्राइवेट टीचरों के पीछे एक कड़क प्रिंसिपल भी होता है| जो दिन में कक्षाओं के चार राउंड लगाता है, और देखता है कि पढ़ाई ठीक से चल रही है या नहीं| जबकि सरकारी स्कूलों में एक बार नौकरी पक्की हो गयी तो टीचर क्लास में ही समय मिलने पर सो जाया करता है| वह बच्चों के रिज़ल्ट की चिंता करता ही नहीं है| सरकारी स्कूलों में पूरी सुविधाएँ दी जा रही हैं तो यह कड़क नियम बना देना चाहिए कि टीचरें सभी बच्चों पर उतनी ही मेहनत करें जितना कि प्राइवेट स्कूलों में होती है| आज प्राइवेट स्कूल की टीचर बच्चों पर इतना मेहनत कर रही हैं जिसकी कोई हद नहीं| उन्हें पेपर करेक्शन घर के लिए दे दिया जाता है| और कहा जाता है कि पेपर घर पर बैठकर करेक्शन करें| जबकि सरकारी स्कूलों में स्कूल में करेक्शन किया जाता है| प्राइवेट स्कूल की टीचरों को होमवर्क भी बहुत देना पड़ता है और रोज़ाना होमवर्क भी चेक करके देखना होता है| प्राइवेट स्कूल की टीचरें बहुत सारी बीमारियों से ग्रसित हो गयी हैं, उन्हें पेरेन्ट्स मीटिंग भी लेनी होती है| और एक-एक बच्चे पर पूरी नज़र रखनी होती है| पेरन्ट्स भी बच्चा ठीक से नहीं पढ़ता है तो सीधे टीचर को ही डॉंट दिया करते हैं|
यह तो रही टीचर की बात माता-पिता भारी स्कूल की फ़ीस भर-भरकर इतने दुखी हो रहे हैं जिसकी कोई हद नहीं रह गयी है| बच्चा स्कूल जाने से उनकी नौकरी लगने तक माता-पिता का शरीर जैसे आग में जल रहा है| माता-पिता की नौकरियों के पहले से दुनिया भर के टेंशन होते हैं, पिता के बिज़नेस के ही दुनिया भर के टेंशन होते हैं, उस पर से ़तीस हज़ार से लेकर साल की एक से पॉंच लाख तक फ़ीस पिताओं के लिए भरना बहुत ही जान पर आ रहा है| फीस का टेंशन तो सबसे बड़ा टेंशन हो गया है| माता-पिता इससे जवानी में ही बड़ी बीमारी का शिकार होकर चालीस, पैंतालीस साल में ही मरते चले जा रहे हैं| जब बच्चा ११वीं क्लास में चला जाता है वहॉं से टेंशन दुगना-तिगुना हो जाता है| फ़ीस की हैबत इतनी बढ़ जाती है कि पूछिये मत और अलग-अलग लोग तो यही सलाह देते हैं कि जितना ज़्यादा हो सके, उतने महँगे कॉलेज में अपने बच्चे को पढ़ाईये| नहीं तो आपका बच्चा बुरी तरह से बर्बादी के रास्ते पर चला जा सकता है| आपके बच्चे का जन्म लेना बेकार हो जायेगा| आप मॉं बाप का भी बुरा हाल हो जायेगा| पहले क्या था कि सरकारी नौकरी लगते ही ज़िंदगी भर फ़ुर्सत हो जाती थी, अब तो सरकारी नौकरी भी नहीं है| इसलिए माता-पिता को प्राइवेट नौकरी के टेंशन सहने पड़ते हैं, आप नौकरी में पंद्रह मिनट लेट हो जाते हैं तो बहुत सारी राजनीति दफ़्तर में हो जाती है| आपको नौकरी से निकालने की भी बातें चला करती हैं भले ही आप पच्चीस साल पुराने नौकर ही क्यों न हों|
इसलिए अब समय आ गया है कि आप अपने बच्चे को सस्ते स्कूल में डालें और दस साल तक चैन की ज़िंदगी जिएँ, दुनिया क्या करती है इसकी चिंता आप करेंगे तो आपका जीना बहुत ही मुश्किल का हो सकता है, आप फ़ीस के चक्कर में जान भी दे देंगे तो कोई कुत्ता भी देखने नहीं आयेगा| इसलिए सरकारी स्कूलों में जाकर वहॉं की टीचरों को समझाइये कि आपके आलसीपन से हम सारी जनता का कितना बुरा हाल हो रहा है| सरकार को भी इस बारे में बहुत ही तेज़ी से काम करन होगा, वरना लोग दर्द से बेहाल होकर मर जाएँगे|
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